जिन्होंने 1971 के युद्ध में भारत को जीत दिलाई
Victory Day 2020 Remembering Field Marshal Manekshaw
Who led India to victory in the 1971 war.
विजय के बावजूद गवाया अवसर
नमस्कार दोस्तों मैं माउंटेन लेपर्ड महेंद्रा आप सभी लोगों का हार्दिक अभिनंदन करता हूं दोस्तों विजय दिवस के अवसर पर यह मेरा छोटा सा प्रयास है कि मैं आपको विजय गाथा की कुछ यादें स्मरण करा सकूं।
दोस्तों आजादी के पहले और उसके उपरांत हम भारत के लोग संविधान के अतिरिक्त ऐसी धुर भारतीय सोच विकसित करने में नाकाम रहे जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतीयता का एक स्थिर दर्शन व परिभाषा प्रतिपादित करती। दोस्तों हम अब कहीं जाकर राष्ट्रीय हित की दिशा में चले हैं। दोस्तों समझौतापरस्त राजनीति वास्तव में विभाजन कारी सोच के लोगों को भी सत्ता में ले आती है।और यह देश उसका प्रतिरोध नहीं करता , बल्कि उसे बर्दाश्त करता है। दोस्तों समय-समय पर इसके प्रमाण मिलते रहे हैं। साल 1971 भी ऐसा ही एक पड़ाव था जब हमें महान विजय प्राप्त हुई थी जिसमें हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को दफन किया था। दोस्तों वह एक सैन्य विजय के साथ-साथ महान वैचारिक विजय भी थी। दोस्तों उस समय बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता। हम पाकिस्तान के विचार को ध्वस्त कर देते ।लेकिन 1971 में गवाह है इस अवसर ने राजनेता इंदिरा गांधी के नजरिए की सीमाएं स्पष्ट कर दी थी।
शायद नेताओं की जमात सप्ताहिक से आगे सोच भी नहीं पाती ।
दोस्तों हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं कि 1971 का युद्ध यदि कश्मीर - मुक्ति का मुख्य लक्ष्य लेकर चला होता तो क्या परिणाम होते। दोस्तों जैसा कि आपको पता होगा पाकिस्तान का बंगाल आक्रमण 25 मार्च 1971 को प्रारंभ हुआ था। जैसा कि जनरल मानेकशॉ की जीवनी में जनरल दीपेंद्र सिंह लिखते हैं की उसी रात सेना मुख्यालय में हुई आपात बैठक में इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशॉ से पूछा कि हम कुछ कर सकते हैं क्या ? इसके जवाब में ही दोस्तों ' मुक्ति वाहिनी ' का जन्म हुआ। फिर 28 अप्रैल की कैबिनेट बैठक में पूर्वी पाकिस्तान पर तत्काल आक्रमण के निर्देश को लेकर मानेकशॉ का यह जवाब की सेनाएं अभी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं है , उन्हें भू राजनीति की स्पष्ट समझ वाला कमांडर सीद्ध करता है । उन्होंने कहा कि सेनाएं चुनाव करा रही थी। अब खाली हुई है।मोबिलाइजेशन , स्टॉकिंग , मेंटेनेंस में 2 माह लगेगा और पूर्वी कमान में सिर्फ 13 टैंक है। इसी दौरान वित्त मंत्री चौहान ने पूछा सिर्फ तेरह टैंक ? जवाब था , मैं पिछले डेढ़ साल से लगातार कह रहा हूं लेकिन आपका जवाब होता है कि पैसे नहीं है। 2 माह बाद मानसून में बंगाल की जमीन समुद्र जैसी हो जाएगी, कोई सैन्य अभियान संभव नहीं होगा। दूसरा चीन अल्टीमेटम दे सकता है। तभी सरदार स्वर्ण सिंह ने पूछा क्या चीन अल्टीमेटम देगा ? जवाब मिला , सर आप बताएं , आप विदेश मंत्री हैं। जब तक हिमालय पर बर्फ नहीं पड़ती , तब तक प्रतीक्षा करनी होगी। हम दो मोर्चों पर लड़ाई नहीं लड़ सकते। ' यह कैबिनेट को दो टूक जवाब था। कोई प्रतिवाद नहीं कर सका। तमतमाई इंदिरा गांधी ने बैठक 4:00 बजे तक स्थगित कर दिए। तभी जनरल ने कहा कि आप चाहेंगे तो मैं स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र दे दूंगा। फिर मानेकशॉ को पूरी तरह छूट दे दी गई । और 1971 की विजय उसी का परिणाम है।
वही देश के नेता तो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि युद्ध की इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर कश्मीर और फिर आगे पाकिस्तान समस्या का स्थाई समाधान भी हो सकता है। हमारी असल समस्या कश्मीर थी , लेकिन कश्मीर का कोई जिक्र नहीं करता। वह कैसे समझते कि पश्चिम में पाकिस्तान की पराजय बांग्लादेश की आजादी का मार्ग स्वत: बना सकती है। दोस्तों युद्ध से पूर्व पश्चिमी मोर्चे पर आक्रमक रणनीति के निर्देश जारी किए गए थे। सारी तैयारियां पूर्ण थी। दोस्तों शायद आप लोगों ने पढ़ा भी होगा कि जनरल संधू अपनी पुस्तक "बैटलग्राउंड छंब " में लिखते हैं कि युद्ध से महज 2 दिन पहले अचानक 1 दिसंबर को प्रधानमंत्री द्वारा रक्षात्मक रणनीति के निर्देश दिए गए । इसने पश्चिमी मोर्चे पर हमारी समस्त सैन्य आक्रमण प्लान पर अचानक ब्रेक लगा दिया। अब हम ना हाजीपीर पर हमला कर पाते और ना लाहौर सियालकोट सेक्टरों पर। दोस्तों से ना कि हाथ बांध दिए गए ।
दोस्तों मानेकशॉ के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद इंदिरा गांधी नहीं मानी और कहा कि यदि हम पश्चिमी सीमा पर आक्रमण किए तो अंतर्राष्ट्रीय विरोध नहीं झेल पाएंगे। निक्सन किसिंग्जर का दबाव था , लेकिन रणनीति बदलने की आखिर मजबूरी क्या थी ? दोस्तों इसका कश्मीर विवाद के भविष्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। और हम युद्ध विराम रेखा तक ही सीमित रह गए। छंब का हमारा 120 वर्ग किलोमीटर का इलाका भी पाकिस्तान के कब्जे में चला गया।
दोस्तों एक दुर्भाग्यपूर्ण आदेश ने 1971 की युद्ध की उस विजय को हमारे लिए अर्थहीन कर दिया। जबकि उस युद्ध में कश्मीर वापसी की संभावनाएं स्पष्ट दिख रही थी , पर सियासी नेतृत्व में साहस नहीं था। वह बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ रहे अमेरिकी बेड़े से डर गया था। आखिर जिनकी प्रकृति ही भीरुता की हो वह धमकियों से भी डर जाते हैं। बंगाल में सेनाएं आक्रमक रणनीति के मुताबिक चल रही थी। 16 दिसंबर को ढाका में जनरल नियाजी का आत्मसमर्पण होते ही रात में युद्ध विराम घोषित कर दिया गया।हमारे राजनीतिक नेतृत्व में घबराहट इतनी अधिक थी कि हाजी पीर पास आदि तो छोड़िए छंब पर पुनः आक्रमण कर वापस अपने कब्जे में लेने का समय भी सेनाओं को नहीं दिया गया। यदि दोस्तों आक्रमक नीति कायम रहती तो हम हाजी पीर , स्कर्दू और गिलगित पर काबिज होते हैं। सेनाएं लाहौर , सियालकोट में दाखिल हो रही होती। नौसेना कराची बंदरगाह को और थल सेना अमरकोट , थारपारकर तक बढ़ गई होती , मगर नहीं , क्योंकि इंदिरा गांधी बांग्लादेश की आजादी के निष्कर्ष कर्म से ही संतुष्ट थी।
दोस्तों बांग्लादेश बनने की वाहवाही को भारत के राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व दिया गया। शिमला समझौता हुआ। भुट्टो को उनके सैनिक मिल गए , पर हमने छंब गंवा दिया ।दोस्तों बांग्लादेश बनने के बाद वहां की प्रताड़ित 8500000 हिंदू आबादी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हमें लेनी चाहिए थी लेकिन राष्ट्रीय हित की समाझ
के अभाव से ऐसा ना हो सका।
दोस्तों राष्ट्रवाद का जन्म तो इस देश में जैसे 2014 के बाद हुआ है। उससे पहले सत्ताओ ने तुष्टीकरण के खेल में देश को सराय बना रखा था । 1971 तो एक महान जनरल की सैन्य विजय थी जिससे कश्मीर का हल निकलता , परंतु राजनीति की स्थापित शूद्र अदाओं ने इसे अर्थहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
धन्यवाद दोस्तों आज के लिए बस इतना ही।
माउंटेन लैपर्ड महेंद्रा
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English translate
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Missed opportunity despite victory
Hello friends, I would like to extend my hearty greetings to all of you mountain lepards Mahendra, Friends, on the occasion of Vijay Diwas, it is my small effort to remind you of some memories of the Vijay saga.
Friends, before and after independence, the people of India, apart from the Constitution, failed to develop such an aristocratic Indian thought which would give a stable philosophy and definition of Indianness in modern perspective. Friends, we have now gone in the direction of national interest. Friends, compromised politics actually brings power to the people of divisive thinking and this country does not resist it, but tolerates it. Friends have been finding evidence of this from time to time. The year 1971 was one such stop when we had a great victory in which we buried the doctrine of two-nation theory. Friends, it was a military victory as well as a great ideological victory. Friends, at that time, just one more step was needed that the Kashmir dispute would have ended. We would have demolished the idea of Pakistan. But in 1971, this occasion made the boundaries of the vision of the politician Indira Gandhi clear.
Perhaps the group of leaders cannot think beyond the week.
Friends, we can only imagine what the consequences would have been if the 1971 war had run with the main goal of Kashmir-liberation. Friends, as you may know, the Bengal invasion of Pakistan started on 25 March 1971. As General Deepender Singh writes in the biography of General Manekshaw that during the emergency meeting that took place at the Army Headquarters that night, Indira Gandhi asked General Manekshaw what we can do. In response to this, friends 'Mukti Vahini' was born. Then Manekshaw's reply to the directive of an immediate attack on East Pakistan in the Cabinet meeting of April 28 that the forces are not yet ready for this, proves him a commander with a clear understanding of geopolitics. He said that the forces were holding elections. It is empty now. Mobilization, stocking, maintenance will take 2 months and Eastern Command has only 13 tanks. Meanwhile, Finance Minister Chauhan asked only thirteen tanks? The answer was, I have been saying continuously for the last year and a half but your answer is that there is no money. After 2 months, the land of Bengal will become like sea in the monsoon, no military operation will be possible. Second China may give ultimatum. Then Sardar Swaran Singh asked if China would give an ultimatum? The answer was, Sir, you tell me, you are the foreign minister. Until the snow falls on the Himalayas, one has to wait. We cannot fight on two fronts. It was a blunt reply to the cabinet. Nobody could counter-protest. Tamtamai Indira Gandhi adjourned the meeting till 4:00 pm. Then the general said that if you want, I will resign due to health reasons. Then Manekshaw was completely exempted. And the 1971 victory is the result of that.
The leaders of the same country could not even imagine that by taking advantage of these circumstances of war, there could be a permanent solution to the problem of Kashmir and then Pakistan. Our real problem was Kashmir, but there is no mention of Kashmir. How did he understand that the defeat of Pakistan in the West could automatically make the road to Bangladesh independence. Before the war, instructions for aggressive tactics were issued on the Western Front. All preparations were complete. Friends, you may have also read that General Sandhu writes in his book "Battleground Chamba" that on 1 December suddenly, just 2 days before the war, the Prime Minister gave instructions for defensive tactics. This put a sudden brake on our entire military invasion plan on the Western Front. Now we would not have been able to attack Hajipir or Lahore Sialkot sectors. No hands were tied to friends.
Friends, despite the strong resistance of Manekshaw, Indira Gandhi did not accept and said that if we attack the western border, we will not face international opposition. Nixon was the pressure of Kissinger, but what was the compulsion to change the strategy? Friends, it had a very bad effect on the future of Kashmir dispute. And we remained confined to the ceasefire line. Our 120 square kilometer area of Chamba also went under the occupation of Pakistan.
Friends, an unfortunate order rendered that victory of the 1971 war meaningless to us. While the prospects of a return to Kashmir were clear in that war, the political leadership lacked courage. He was frightened by the American fleet advancing towards the Bay of Bengal. After all, whose nature is of the same nature, they are afraid of threats too. The forces in Bengal were following an aggressive strategy. A ceasefire was declared at night as soon as General Niazi surrendered in Dhaka on 16 December. The panic in our political leadership was so high that the Haji Pir Pass, etc., leave the Chamba to recapture and take back the forces. Not given If friends aggressive policy continues, then we hold on to Haji Pir, Skardu and Gilgit. The forces would have been entering Lahore, Sialkot. The Navy would have extended to the port of Karachi and the army to Amarkot, Tharparkar, but not because Indira Gandhi was satisfied with the conclusion of Bangladesh's independence.
The accolades of becoming friends Bangladesh were given more importance than India's national interest. The Simla Agreement was reached. Bhutto got his soldiers, but we lost the Chamba. After becoming friends Bangladesh, we should have also taken the responsibility of protecting the oppressed 8500000 Hindu population there but in the interest of national interest.
This could not happen due to lack of
Friends, nationalism has been born in this country like after 2014. Before that the powers had made the country an inn in the game of appeasement. 1971 was a military victory of a great general that would solve Kashmir, but the established Shudra styles of politics left no stone unturned to make it meaningless.
Thanks guys, that's all for today.
Mountain Leopard Mahendra
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